गुरुवार, ८ जानेवारी, २०१५

एक सुबह




काश एक सुबह ऐसी आए
निंदसे उठे आदमी और अपना धर्म भूल जाए.


चुटिया गायब, दाढ़ी सपाट.
नमाज़ ना प्रेयर, आरती ना पूजा पाठ.


पहले रोज सुबह का वक्त यूही जाया होता था,
कोई चिल्ला चिल्ला कर, तो कोई गा कर गला सुकाता था.

कुछ लोग तो सुबह उठकर सर पकड़ बैठे थे.
उन्हे तो यही याद नही जीवन मे पहले वो क्या करते थे.
काम काज की तो कोई ज़रूरत ना थी
लोग तो पैर छूकर पैसे दिया करते थे.


काम पर निकला आदमी घुम्म्ट देख चकराया,
यहा बच्चो को खेलने की जगह नही, ये ढकोसला किसने बनवाया.


मंदिर खाली थे, मसजीत थी सुनसान,
गिरजा घर बना दिए क्लासरूम, गुरुद्वारे अनाज के गोदाम.


एक पगोडे को मुज़ियम बनवाया. सारी मूर्तिया, तसबीरे, धार्मिक ग्रंथोको उसमे रखवाया.
और दालन पर लिखवाया.
"अंदर की चीज़े बिल्कुल ना छुए, वो बोहोत घातक है,
उनमे इंसान को इंसान से  लड़ाने  की ताक़त है"



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